धर्म बना आज की राजनीति का पखवाड़ा
धर्म और राजनीति का समन्वय आज से ही नहीं पुरातन काल से सकारात्मक रहा है कोई भी कैसा अगर राजा को निर्णय लेना होता था तो वो कुलगुरु से सलाह मांगते थे और आचर्य चाणक्य या गुरुद्रोण इसके स्पस्ट उदाहरण है जो भी जैसा भी मेरा एक ही कथन है सकारत्मक राजनीती बिना धर्म के सम्भव नहीं है क्यों की धर्म के जो गुण है वो स्पस्ट तरीके से एक राजीनीति रूपी सीसे में झलकता है खुद आप देख लेवे की धर्म के मुख्य आधारभूत सिद्धान्त सत्य, सेवा, सहयोग, सुमिरन, समर्पण है ये और एक राष्ट्र के जो नियम है वो भी लगभग ऐसा है है राजनीती सिद्धांन्त भी कुछ ऐसा ही है चाहे वो समानता का या सहयोग की भवना का हो दूसरे सब्दो में राजनीती का मुख्य उद्देश है की किसी भी देश के कन्नून विधि के अनुरूप ही कोई कार्य हो और कार्य भी देश हीत और नागरिक हित को देखकर इसलिए राष्ट्र सभी धर्मो से उच्च राष्ट्र धर्म माना गया है और किसी भी धर्म को संचालित करने की विधि एक सकारत्मक जीव के अंदर होना चाहिए और वो राजनीती नामक विधि से ही सम्भव है राष्ट्र धर्म की रच्छा कर सकती ही भगवान ने गीता में खुद कहा है ऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:। सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकर:कर्ता सात्विक उच्यते।। (गीता 18/26)- लालच व अंहकार से मुक्त, धैर्य व उत्साह से युक्त रहकर परिणाम की परवाह किये बिना, फलासक्ति से रहित रहकर योगधर्म व राष्ट्रधर्म को निष्ठापूर्वक निभाना। ये हर नागरिक का पूर्ण कर्तब्य है तो मतलब है की बिना धर्म के नीति और मार्ग के बिना राजनीती राजनीती नहीं कूटनीति का रुप ले लेती है (धर्म और राजनीती -ससक्त राष्ट्र )
लेकिन आज के इस पाखंड के बाजार में न कोई राष्ट्र धर्म का महत्त्व रहा गया न कोई विधि राजनीती की जिसे कोई भी राष्ट्र का भला हो सके हमरे देश में ऋषि मुनियो का या धर्मगुरु का सिर्फ आशीर्वाद या मार्गदर्सन म ही रहा करता था चाहे हो गुरु वासिस्ष्ट ,या आचर्य चाणक्य या देवराहबाबा जी सभी ने केवल इक मार्गदर्सन दिया खुद राजा सासंद जैसे पदो के लालच में नहो पड़े लेकिन आज कुछ ताथाकथित कलयुगी संतो लिबास पहन कर और खुद को भगवान का एजेंट बता कर राजनीती में अपना हाथ साफ करते है मतलब आस्था के साथ पूर्ण खिलवाड़ मै मानता हु की एक अच्छे राष्ट्र के लिए धर्म जरुरी है पर धार्मिक पखवाडा उचित नहीं है ये देश राम का भी और रहीम का भी है तुलसीदास का भी है तो कबीर दस का भी है धर्म जो भी हो वो राष्ट्र का विकाश ही चाहता है लेकिन कुछ कलयुगी बाबा लोगो के आस्था के साथ खिलवाड़ कर धर्मं का मायने पर ही सवालिया निसान लगा दिया मेरा सिर्फ एक ही तर्क है की लोगो को उपदेश जो देते है बाब लोग वो खुद पर लागु क्यों नहीं करते है ,अभी भी राष्ट्र को के लोग को सोचना चाहिए की लोभ मोह ये गुण बड़े बड़े बाबा को फास लिया है तो फिर राष्ट्र का विकास कैसे ,अपनी सोच को आप सब सकरतमक करे और इक अचे राजनीतीक नागरिक की तरह आज के युग में अचे लोग का चुनाव करे बाबा लोग या अन्य कोई धार्मिक गुरु का समर्थन बिलकुल मत करे क्यों की एक सच्चे देशभक्त के लिए सबसे बड़ा उसका राष्ट्र धर्म ही होता है आज के समय में अकोई भी धर्म गुरु पहले अपना लाभ भी सोचत है इसलिए धर्म को आज नीति से दूर ही रखा जाये तो आज के लिए बेतहर कल बनेगा
राष्ट्र धर्म परमो उच्च धर्म || इदं राष्ट्राय इदन्न मम ||
राजा पंडित (ये मेरे अपने विचार )