प्रेम में हम किसी को हृदय से लगा लेते हैं। दो देह पास आ जाती हैं, लेकिन दूरी बरकरार रहती है, दूरी मौजूद रह जाती है। इसलिए हृदय से लगाकर भी किसी को पता चलता है कि हम अलग-अलग हैं, पास नहीं हो पाये हैं, एक नहीं हो पाये हैं। शरीर को निकट लेने पर भी, वह जो एक होने की कामना थी, अतृप्त रह जाती है। इसलिए शरीर के तल पर किये गये सारे प्रेम असफल हो जाते हों, तो आश्चर्य नहीं। प्रेमी पाता है कि असफल हो गये। जिसके साथ एक होना चाहा था, वह पास तो आ गया; लेकिन एक नहीं हो पाये। लेकिन उसे यह नहीं दिखायी पड़ता कि यह शरीर की सीमा है कि शरीर के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता, पदार्थ के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता, मैटर के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता। यह स्वभाव है पदार्थ का कि वहां पार्थक्य होगा, दूरी होगी, फासला होगा।